जागीरदारी प्रथा
--- राजपूतो में चौरासी की अवधारणा---
राजपूतो के बसापत का पैटर्न समझने के लिए ये पोस्ट जरूर पढ़ें। इससे पहले इस विषय पर कभी नही लिखा गया--
राजपूतो की ज्यादातर बसापत गांवो के समूह के रूप में मिलती हैं। 12 गांव, 24 गांव, 42 गांव, 60 गांव, 84 गांव आदि। इन्हें खाप कहा जाता है। ये राजपूतो में ही मिलती है या राजपूतो से गिरकर दूसरी जाती में गए वंशो में। दूसरी जातियों में भी सिर्फ उन्ही वंशो की एक गोत्र की खाप मिलती है जो राजपूतो से गिर कर उनमे शामिल हुए हैं। क्योंकि राजपूतो की ही बसापत सैनिक सेवा के बदले जागीर मिलने से होती थी। इसके अलावा खुद से भी किसी क्षेत्र को जीता जाता था लेकिन उसके बाद अपने से बड़ी ताकत से पट्टा अपने नाम लिखवाया जाता था जो कि गांवो के समूह के रूप में ही होता था।
जागीर एक दो गांव की भी हो सकती थी लेकिन ज्यादातर कई गांवो की होती थी। अब जरूरी नही कि जितने गांवो की जागीर मिली है उन सभी गांवो में उन राजपूतो की बसापत हो। लेकिन समय के साथ आबादी बढ़ने से जागीर के अन्य गांवो में भी फैल जाते थे। बाद में खुद खेती भी करने लगे।
राजपूतो की इन खापो में सबसे ज्यादा लोकप्रिय संख्या 84 की थी। 84 क्या है इसको जानना बहुत जरूरी है। भारतीय संस्कृति में संख्या 84 का बड़ा धार्मिक महत्व रहा है। इसे शुभ माना जाता रहा है। इसीलिए किसी चीज को दर्शाने में इस संख्या का बहुत इस्तेमाल किया जाता रहा है। जैसे महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थो की संख्या 84 बताई गई है। जरूरी नही की तीर्थो की संख्या सटीक 84 ही हो लेकिन पवित्र होने के कारण इस संख्या का सांकेतिक रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी तरह मेरु पर्वत की ऊँचाई 84 हजार योजन बताई जाती है। ब्रज को 84 कोस में फैला बताया जाता है। प्रसिद्ध जोगियों की संख्या 84 बोली जाती है। जानवरो की प्रजातियों की संख्या 84 लाख बताई जाती हैं आदि आदि।
इसी तरह जब इलाकाई डिवीज़न की बात की जाती थी तब भी 84 का बहुत उपयोग किया जाता था। एक परगने को 84 गांव के बराबर माना जाता था। हालांकि मध्यकाल में एक परगना 40 गांव का भी हो सकता था और 400 गांव का भी। राजपूतो को सबसे बड़ी जागीर जो मिलती थी वो ज्यादातर 84 गांव की ही होती थी। इनमे से कई 84 आज भी मौजूद हैं लेकिन जरूरी नही कि इनमे आज राजपूतो की संख्या पूरे 84 गांवो में हो। इसके अलावा 84 गांव पूरे ना होने या उससे कुछ ज्यादा होने पर भी 84 बोल दिया जाता था। कई बार एक पूरा परगना किसी एक वंश की जागीर में होने पर उसे 84 बोलना पसंद करते थे भले ही उसमे 84 गांव पूरे ना हो या उससे कुछ ज्यादा हों। ये 84 सांकेतिक ज्यादा होती थी।
इसी तरह 84 के चार गुना यानी की 360 और 360 के चार गुना 1440 संख्याओं को भी शुभ माना जाता है इसीलिए इनका भी राजपूतो के इलाकाई डिवीज़न में बहुत महत्व था। लेकिन 360 और 1440 ज्यादातर जागीर में नही मिलते थे। एक 'सरकार' जो आज के जिले की तरह होता था उसे 360 गांव के बराबर माना जाता था। हालांकि ये संख्या भी सांकेतिक ही होती थी। किसी वंश का शासन किसी बड़े हिस्से में हो जो लगभग सरकार के बराबर या आसपास हो तो उसे 360 गांव बोल दिया जाता था जैसे हरियाणा में मडाडों का राज्य था या रोहतक वाले परमारो का। अगर इससे कहीं ज्यादा बड़ा हो तो 1440 गांव बोल दिया जाता था। जैसे हरिद्वार, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर क्षेत्र में पुंडीरो का राज्य था। गौरतलब है कि 360 या 1440 अक्सर वहां होते थे जहां किसी वंश का पहले से ही बड़ा राज्य रहा हो और बड़ी ताकत के अधीन होने के बावजूद ये अर्धस्वतंत्र होते थे और अपने राज्य में खुद जागीर बांटते थे। और आज भी उसी तरह से इनकी आबादी मिलती है।
उदाहरण के लिए हरियाणा के परमारो का राज दादरी से गोहाना और जींद से बहादुरगढ़ के क्षेत्र तक था। इसको 360 गांव की रियासत कह सकते हैं। ये इलाका जीतने के बाद परमार राजा ने अपने सेनापतियों या पुत्रो वगैरह को जागीरे बांटी होंगी। इसी तरह परमारो की इस क्षेत्र में 12, 24 या 32 गांवो की 3-4 या उससे ज्यादा खाप बनी। इन्ही जागीर के गांवो में परमार राजपूतो की आबादी का विस्तार हुआ। कुछ एकलौते गांव की जागीरे या भोम भी दी जाती थीं इसलिए स्वतंत्र गांव भी बसते थे। रियासत के बाकी गांवो में किसान जातीयो के लोग बसाकर परमार राजा उनसे खेती कराते। इन परमारो की राजधानी कलानौर थी। किसानों को बसाने के उपक्रम में किसानों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण किसान जाती के लोग जमीन के लिए 'भेंट' देने की भी पेशकश करते, तभी से कलानौर में कौला पूजा की शुरुआत हुई। किसानों को जहां खेती की जमीन मिलती वही बस जाते थे, किसी एक गोत्र के किसानो को खेती करने के लिए जागीर की तरह गांवो का पूरा समूह देने का कोई मतलब नही था इसलिए उनमे एक ही गांव में कई गोत्र के लोग मिलेंगे जो रिश्तेदारी में आकर नही बसे बल्कि एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से जमीनें मिलने पर बसे हैं। इसी तरह एक गोत्र की जगह कई गोत्र की खाप भी मिलेगी। हरियाणा में सुरक्षा कारणों से जाटो में अलग अलग गोत्र के किसानों के गांवो द्वारा मिलकर खाप बना लेने का चलन था इसलिए वहां जाटो में बहुगोत्रीय खाप भी मिलती हैं जैसे महम चौबीसी खाप। ये खाप कलानौर परमार रियासत की खालसाई जमीन पर खेती करने वालो की है जो इन्होंने 19वी सदी में ही बनाई है। इस खाप के जाट परमारो के मुजारे होते थे। इस खाप के बनने के बाद ही इन्होंने कौला पूजन के खिलाफ आंदोलन किया।
इसीलिए हरियाणा और पश्चिम यूपी में जाट और गूजर जैसी जातियों में एकगोत्र कि खाप सिर्फ वो ही हैं जो राजपूतो से निकले हैं। जैसे पश्चिम यूपी में गूजरो में भाटी, कलस्यान, पवार, नागर आदि की ही खाप मिलती हैं जो अपने को राजपूतो से निकला बताते हैं। बाकी हूण, चेची, कसाना आदि गोत्र के गूजर जो असली गूजर कहे जाते हैं वो बिखरे हुए ही मिलते हैं।
राजपूतो के गांव वहीं बसते थे जहाँ उन्हें खुद सैनिक सेवा के बदले जागीर मिलती थी। जबकि कृषक या अन्य पेशों वाली जातियां कही भी किसी की भी जागीर में या
खालसाई इलाको में बस सकती थीं जहाँ उन्हें खेती के लिए जमीन या उनके पारंपरिक पेशे से जुड़ा काम मिल जाए। पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब वगैरह में दिल्ली के करीब होने के कारण मुस्लिम शासन की स्थापना के बाद राजपूतो को कोई नई जागीरे नही मिली और जो पुरानी जागीरे या राज्य थे उनको भी धीरे धीरे तोड़ा जाता रहा इसलिए अपनी जागीरों में भी नए गांवो में राजपूतो का बसना बंद होता गया। इस कारण इन क्षेत्रों में एक तो पिछली कई सदियों में राजपूतो की आबादी का विस्तार बहुत कम हुआ। ऊपर से जागीरे टूटने और कमजोर होने के कारण कई खापो के अन्य जातियों में शामिल होने से संख्या पहले से कम भी होती गई। जबकि कृषक जाती होने के कारण जाट गूजर जैसी जातियों के लोग 20वी सदी तक नए इलाको और गांवो में बसते रहे, दूसरों की जागीरों में मुजारे के अलावा खालसाई जमीनों पर भी खेती करने के लिए बसते रहे। इसके अलावा राजपूतो से गिरी खाप भी इनमे शामिल होती रहीं। इस कारण इन क्षेत्रों में इनकी आबादी का बहुत विस्तार हुआ और इनके पिछली कुछ सदियों में ही बसे गांव बहुत मिलेंगे। दिल्ली में सल्तनत की राजधानी से लगता इलाका खालसा में होने के बावजूद इनकी वहां बहुत आबादी है।
इस 360 की तरह ही मडाड और चौहानो की 360 थी। मडाडों के 360 गांव जो बोले जाते हैं उसका मतलब उनकी रियासत से था, मडाड राजपूतो की बसापत सभी 360 गांवो में नही थी।
इसी तरह उत्तरी दोआब में पुंडीरो की रियासत 1440 गांव की बोली जाती थी जो आज के सहारनपुर, हरिद्वार, मुजफ्फरनगर और शामली जैसे 4 जिलों में फैली हुई थी। इसमे पुंडीरो के गांवो के कई समूह हैं जो पहले जागीर रही होंगी।
लेकिन इसमे कोई एकरूपता नही होती थी। जैसे जाटू तंवरो के राज्य का क्षेत्रफल मडाडों या परमारो से ज्यादा नही था लेकिन वो अपने को 1440 बोलते थे। बाद में भाट जगाओ ने अज्ञानता के कारण अपने हिसाब से इन संख्याओं को परिभाषित करने का काम किया। जैसे किसी वंश की 360 बोली जाती है लेकिन वर्तमान में उस जगह सिर्फ 40-50 गांव में उस वंश की आबादी दिख रही है तो भाटो ने अपने मन से उस वंश की दूसरी जगह बसी खापो को जोड़ जाड़ के 360 गांव सिद्ध कर दिए। जैसे पश्चिम उत्तर प्रदेश में गहलोतो के कई जगा/भाट यहां पुराने जमाने से 360 गांव होने की बात जो जनश्रुतियों में लोकप्रिय थी, उसे सिद्ध करने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी खाप के गहलोतो के गांव के साथ नेपाल में गहलोत बताकर वहां के गांव तक की काल्पनिक संख्या जोड़ देते हैं। जबकि उन्हें नही पता कि हाथरस क्षेत्र में ही एक समय गहलोतो का बड़ा राज्य था जिस कारण 360 गांव होने की बात जनश्रुतियों में थी।
इसी तरह सर्विस क्लास जातियों के भी आंतरिक संगठन में 84 और 360 गांवो पर चौधरी होते थे। उदाहरण के लिए एक विशेष क्षेत्र में बढ़ई जाती के 360 गांव बोले जाते थे जिनपर उनका मुखिया होता था जिसे चौधरी कहते थे। इसका मतलब ये नही कि वो 360 गांव के मालिक होते थे। बल्कि 360 गांव में रहने वाले बढ़ई जाती के लोगो का मुखिया होता था। लेकिन 360 भी सांकेतिक होता था। गांव इससे कहीं ज्यादा या कम हो सकते थे।
राजपूतो में उत्तर भारत में निम्नलिखित चौरासी थीं----
(ये संपूर्ण लिस्ट नही है और ना ही परफेक्ट है। कई जगह पहले कुछ और मान्यता रही होगी और अब कुछ और। जैसे बुलंदशहर के बाछलो पर पहले 55 गांव की जागीर होती थी जो अंग्रेजो के समय खत्म हो गई और उस वक्त जिन 12 गांवो में बसापत थी उनमे ही उनकी आबादी रही आई इसलिए अब बारहा गांव की खाप बोली जाती है)
गाजियाबाद-हापुड़ में तोमरो की चौरासी।
हापुड़ के गढ़मुक्तेश्वर में ही चौरासी का आधा ब्यालसी भी थी तोमरो की।
बुलंदशहर के खुर्जा में भाल सोलंकीयो की चौरासी।
बुलंदशहर के ही जेवर में छोकरो की चौरासी।
बुलंदशहर के ही अनूपशहर और संभल के नरौली क्षेत्र में बडगूजरो(राघव) की चौरासी।
पुराने जमाने में गुड़गांव और मुजफ्फरनगर क्षेत्र में भी बडगूजरो(राघवो) की चौरासी बोली जाती थी। अब गुड़गांव में चौबीसी बोली जाती है जबकि मुजफ्फरनगर वाली के मुसलमान बन जाने की बात बोली जाती है लेकिन असल मे बालियान जाट जो बडगूजरो की देखा देखी अपने को अब रघुवंशी बोलते हैं उन्ही के लिए पुराने समय मे जनश्रुतियों में बडगूजरो की चौरासी होना बोला गया है।
बुढ़ाना क्षेत्र में कछवाहों की चौरासी। हालांकि पुराने जमाने में इनकी यहां 360 होने का जिक्र होता था। जिसका मतलब इनका कभी बड़ा राज्य रहा हो सकता है।
सहारनपुर के काठा क्षेत्र को पहले चौरासी बोला जाता था।
लोनी में चौहानो की चौरासी थी।
अलीगढ़ के चंडौस क्षेत्र में चौहानो की चौरासी।
अलीगढ़-हाथरस क्षेत्र में पुंडीरो की चौरासी है।
कासगंज के सोरों क्षेत्र मे सोलंकियों की चौरासी।
इसी क्षेत्र में गौरहार की चौरासी।
मथुरा में तरकर की चौरासी।
बदायूं के बिलसी क्षेत्र में जंघारा तोमरो की चौरासी।
मैनपुरी के किरावली में राठोड़ो की चौरासी।
आंवला में चौहानो की चौरासी है।
मिर्जापुर के कांतित में गहरवारों की चौरासी थी।
प्रयागराज के मेजा क्षेत्र में भी गहरवारों की चौरासी है।
कानपुर के शिवली में चंदेलों की चौरासी है।
एमपी के जबलपुर के पास बनाफ़रो की चौरासी है।
उन्नाव में बिसेन राजपूतो की चौरासी होती थी।
मैनपुरी के करहल क्षेत्र में बैस राजपूतो की चौरासी बोली जाती थी।
जौनपुर में चंदेलों की चौरासी होती थी।
गोखपुर के उनौला के पास पालिवार राजपूतो की चौरासी है।
बलिया के दोआबा में बिसेनो की चौरासी है।
गाजीपुर के गहमर क्षेत्र और उससे लगते बिहार में सिकरवारो की चौरासी।
सिकरवारों की चौरासी थी।
एमपी के मुरैना में सिकरवारों की चौरासी है।
भोपाल के पास चौहानो की चौरासी है।
रीवा के रामपुर में बघेलों की चौरासी।
सीधी में चौहानो और सेंगरो की चौरासी।
होशंगाबाद में धाकरे राजपूतो की चौरासी बताई जाती है।
सुल्तानपुर-जौनपुर क्षेत्र में राजकुमारों के क्षेत्र को चौरासी कोस में फैला बोलते हैं।
इसी तरह 360 की अगर बात करें तो हरियाणा और पंजाब में बड़े राज्य रहे हैं इसलिए वहां कई 360 मिलती हैं।
जैसे उत्तरी हरियाणा में चौहानो की 360। लेकिन वहां अब बसे हुए गांवो के आधार पर दो 84 बोलने का चलन ज्यादा है।
उससे नीचे मडाडों की 360
मडाडों के नीचे परमारो की 360
सिरसा में भट्टियों की भी 360 होती थी।
पंजाब में वराह और तावनी राजपूतो की भी 360 बोली जाती थी।
उनसे आगे घोडेवाहा के 360 गांव का राज बोला जाता था।
लुधियाना और जालंधर के आसपास मंज राजपूतो की 360 होती थी।
हाथरस आगरा क्षेत्र मे अब गहलोत की 84 है लेकिन पहले 360 बोली जाती थी जिससे संकेत मिलता है कि पहले यहां इनका बड़ा राज्य था।
मुरादाबाद के कठेरिया रामपुर में अपने 360 गांव बोलते हैं हालांकि कठेरियो का राज इससे कई गुना बड़े इलाके पर था, मुरादाबाद से लेकर शाहजहांपुर तक। इनके राज्य के लिए 1440 की सांकेतिक संख्या भी कम है।
कानपुर में जो चंदेलों की 84 है उसको पहले 360 बोलते थे।
गोंडा क्षेत्र में बिसेनो का 360 रहा है।
वाराणसी-गाजीपुर के कटेहर क्षेत्र के रघुवंशियो की खाप को 360 बोला जाता था।
बलिया जिले के प्रसिद्ध लखनेसर के सेंगरो के राज्य को 360 गांव का ही बोला जाता था।
इसके बाद अगर 1440 की बात करें तो पुंडीरो के अलावा भिवानी हिसार में जाटू तंवरो के 1440 गांव बोले जाते थे।
मुरैना क्षेत्र में भी तोमरो की खाप को 1440 बोला जाता है।
अवध का बैसवाड़ा भी 1440 गांव का माना जाता है।
उन्नाव का दिखितवाड़ा, राय बरेली के कान्हपुरिया, सुलतानपुर के बछगोती, सर्यूपार के कलहंस, सूर्यवंशी, श्रीनेत, उत्तरी अवध के चंद्रवंशी बाछल, हरदोई के सोमवंशी, आजमगढ़- अम्बेडकरनगर के पालिवारो के राज्य भी 360 या 1440 गांव का बोले जाते थे।
लेखक- पुष्पेन्द्र राणा
संदर्भ- विभिन्न colonial रिकार्ड्स।
नोट- इसमे सिर्फ मेरी जानकारी की और पढ़ने में जो आई सिर्फ उन्ही खापो का जिक्र किया है। इस तरह की और खापो के बारे में जानकारी हो तो बताए। धीरे धीरे उन्हें भी जोड़ दिया जाएगा। जागीर/खाप इससे अलग संख्या में भी होती है। 12, 24, 60, 87 आदि गांव की भी खाप होती हैं और इन्हें भी शुभ संख्या माना जाता है लेकिन 84 को सबसे शुभ माना जाता है क्योंकि इस संख्या का 7 और 12 दोनो से भाग होता है। ये भारतीय ज्योतिषशास्त्र का विषय है, में इसके डिटेल मे नही जाना चाहता। मेने 84 के बहाने से राजपूतो के सेटलेमेंट्स या उपनिवेशीकरण का पैटर्न समझाने की कोशिश की है क्योंकि में देखता था कि इस विषय मे लोगो को बहुत भ्रम हैं। (आज तक किसी academician ने भी इस विषय पर शोध नही किया और ना ही उन्हें ज्ञान) अगर फिर भी कोई डाउट हो तो पूछ सकते हैं। राजपूतो की बसापत सिर्फ इसी तरह होती थी ऐसा नही है लेकिन पुराने जमाने मे ये ही स्टैण्डर्ड प्रक्रिया थी।
राजपूतो के बसापत का पैटर्न समझने के लिए ये पोस्ट जरूर पढ़ें। इससे पहले इस विषय पर कभी नही लिखा गया--
राजपूतो की ज्यादातर बसापत गांवो के समूह के रूप में मिलती हैं। 12 गांव, 24 गांव, 42 गांव, 60 गांव, 84 गांव आदि। इन्हें खाप कहा जाता है। ये राजपूतो में ही मिलती है या राजपूतो से गिरकर दूसरी जाती में गए वंशो में। दूसरी जातियों में भी सिर्फ उन्ही वंशो की एक गोत्र की खाप मिलती है जो राजपूतो से गिर कर उनमे शामिल हुए हैं। क्योंकि राजपूतो की ही बसापत सैनिक सेवा के बदले जागीर मिलने से होती थी। इसके अलावा खुद से भी किसी क्षेत्र को जीता जाता था लेकिन उसके बाद अपने से बड़ी ताकत से पट्टा अपने नाम लिखवाया जाता था जो कि गांवो के समूह के रूप में ही होता था।
जागीर एक दो गांव की भी हो सकती थी लेकिन ज्यादातर कई गांवो की होती थी। अब जरूरी नही कि जितने गांवो की जागीर मिली है उन सभी गांवो में उन राजपूतो की बसापत हो। लेकिन समय के साथ आबादी बढ़ने से जागीर के अन्य गांवो में भी फैल जाते थे। बाद में खुद खेती भी करने लगे।
राजपूतो की इन खापो में सबसे ज्यादा लोकप्रिय संख्या 84 की थी। 84 क्या है इसको जानना बहुत जरूरी है। भारतीय संस्कृति में संख्या 84 का बड़ा धार्मिक महत्व रहा है। इसे शुभ माना जाता रहा है। इसीलिए किसी चीज को दर्शाने में इस संख्या का बहुत इस्तेमाल किया जाता रहा है। जैसे महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थो की संख्या 84 बताई गई है। जरूरी नही की तीर्थो की संख्या सटीक 84 ही हो लेकिन पवित्र होने के कारण इस संख्या का सांकेतिक रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी तरह मेरु पर्वत की ऊँचाई 84 हजार योजन बताई जाती है। ब्रज को 84 कोस में फैला बताया जाता है। प्रसिद्ध जोगियों की संख्या 84 बोली जाती है। जानवरो की प्रजातियों की संख्या 84 लाख बताई जाती हैं आदि आदि।
इसी तरह जब इलाकाई डिवीज़न की बात की जाती थी तब भी 84 का बहुत उपयोग किया जाता था। एक परगने को 84 गांव के बराबर माना जाता था। हालांकि मध्यकाल में एक परगना 40 गांव का भी हो सकता था और 400 गांव का भी। राजपूतो को सबसे बड़ी जागीर जो मिलती थी वो ज्यादातर 84 गांव की ही होती थी। इनमे से कई 84 आज भी मौजूद हैं लेकिन जरूरी नही कि इनमे आज राजपूतो की संख्या पूरे 84 गांवो में हो। इसके अलावा 84 गांव पूरे ना होने या उससे कुछ ज्यादा होने पर भी 84 बोल दिया जाता था। कई बार एक पूरा परगना किसी एक वंश की जागीर में होने पर उसे 84 बोलना पसंद करते थे भले ही उसमे 84 गांव पूरे ना हो या उससे कुछ ज्यादा हों। ये 84 सांकेतिक ज्यादा होती थी।
इसी तरह 84 के चार गुना यानी की 360 और 360 के चार गुना 1440 संख्याओं को भी शुभ माना जाता है इसीलिए इनका भी राजपूतो के इलाकाई डिवीज़न में बहुत महत्व था। लेकिन 360 और 1440 ज्यादातर जागीर में नही मिलते थे। एक 'सरकार' जो आज के जिले की तरह होता था उसे 360 गांव के बराबर माना जाता था। हालांकि ये संख्या भी सांकेतिक ही होती थी। किसी वंश का शासन किसी बड़े हिस्से में हो जो लगभग सरकार के बराबर या आसपास हो तो उसे 360 गांव बोल दिया जाता था जैसे हरियाणा में मडाडों का राज्य था या रोहतक वाले परमारो का। अगर इससे कहीं ज्यादा बड़ा हो तो 1440 गांव बोल दिया जाता था। जैसे हरिद्वार, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर क्षेत्र में पुंडीरो का राज्य था। गौरतलब है कि 360 या 1440 अक्सर वहां होते थे जहां किसी वंश का पहले से ही बड़ा राज्य रहा हो और बड़ी ताकत के अधीन होने के बावजूद ये अर्धस्वतंत्र होते थे और अपने राज्य में खुद जागीर बांटते थे। और आज भी उसी तरह से इनकी आबादी मिलती है।
उदाहरण के लिए हरियाणा के परमारो का राज दादरी से गोहाना और जींद से बहादुरगढ़ के क्षेत्र तक था। इसको 360 गांव की रियासत कह सकते हैं। ये इलाका जीतने के बाद परमार राजा ने अपने सेनापतियों या पुत्रो वगैरह को जागीरे बांटी होंगी। इसी तरह परमारो की इस क्षेत्र में 12, 24 या 32 गांवो की 3-4 या उससे ज्यादा खाप बनी। इन्ही जागीर के गांवो में परमार राजपूतो की आबादी का विस्तार हुआ। कुछ एकलौते गांव की जागीरे या भोम भी दी जाती थीं इसलिए स्वतंत्र गांव भी बसते थे। रियासत के बाकी गांवो में किसान जातीयो के लोग बसाकर परमार राजा उनसे खेती कराते। इन परमारो की राजधानी कलानौर थी। किसानों को बसाने के उपक्रम में किसानों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण किसान जाती के लोग जमीन के लिए 'भेंट' देने की भी पेशकश करते, तभी से कलानौर में कौला पूजा की शुरुआत हुई। किसानों को जहां खेती की जमीन मिलती वही बस जाते थे, किसी एक गोत्र के किसानो को खेती करने के लिए जागीर की तरह गांवो का पूरा समूह देने का कोई मतलब नही था इसलिए उनमे एक ही गांव में कई गोत्र के लोग मिलेंगे जो रिश्तेदारी में आकर नही बसे बल्कि एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से जमीनें मिलने पर बसे हैं। इसी तरह एक गोत्र की जगह कई गोत्र की खाप भी मिलेगी। हरियाणा में सुरक्षा कारणों से जाटो में अलग अलग गोत्र के किसानों के गांवो द्वारा मिलकर खाप बना लेने का चलन था इसलिए वहां जाटो में बहुगोत्रीय खाप भी मिलती हैं जैसे महम चौबीसी खाप। ये खाप कलानौर परमार रियासत की खालसाई जमीन पर खेती करने वालो की है जो इन्होंने 19वी सदी में ही बनाई है। इस खाप के जाट परमारो के मुजारे होते थे। इस खाप के बनने के बाद ही इन्होंने कौला पूजन के खिलाफ आंदोलन किया।
इसीलिए हरियाणा और पश्चिम यूपी में जाट और गूजर जैसी जातियों में एकगोत्र कि खाप सिर्फ वो ही हैं जो राजपूतो से निकले हैं। जैसे पश्चिम यूपी में गूजरो में भाटी, कलस्यान, पवार, नागर आदि की ही खाप मिलती हैं जो अपने को राजपूतो से निकला बताते हैं। बाकी हूण, चेची, कसाना आदि गोत्र के गूजर जो असली गूजर कहे जाते हैं वो बिखरे हुए ही मिलते हैं।
राजपूतो के गांव वहीं बसते थे जहाँ उन्हें खुद सैनिक सेवा के बदले जागीर मिलती थी। जबकि कृषक या अन्य पेशों वाली जातियां कही भी किसी की भी जागीर में या
खालसाई इलाको में बस सकती थीं जहाँ उन्हें खेती के लिए जमीन या उनके पारंपरिक पेशे से जुड़ा काम मिल जाए। पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब वगैरह में दिल्ली के करीब होने के कारण मुस्लिम शासन की स्थापना के बाद राजपूतो को कोई नई जागीरे नही मिली और जो पुरानी जागीरे या राज्य थे उनको भी धीरे धीरे तोड़ा जाता रहा इसलिए अपनी जागीरों में भी नए गांवो में राजपूतो का बसना बंद होता गया। इस कारण इन क्षेत्रों में एक तो पिछली कई सदियों में राजपूतो की आबादी का विस्तार बहुत कम हुआ। ऊपर से जागीरे टूटने और कमजोर होने के कारण कई खापो के अन्य जातियों में शामिल होने से संख्या पहले से कम भी होती गई। जबकि कृषक जाती होने के कारण जाट गूजर जैसी जातियों के लोग 20वी सदी तक नए इलाको और गांवो में बसते रहे, दूसरों की जागीरों में मुजारे के अलावा खालसाई जमीनों पर भी खेती करने के लिए बसते रहे। इसके अलावा राजपूतो से गिरी खाप भी इनमे शामिल होती रहीं। इस कारण इन क्षेत्रों में इनकी आबादी का बहुत विस्तार हुआ और इनके पिछली कुछ सदियों में ही बसे गांव बहुत मिलेंगे। दिल्ली में सल्तनत की राजधानी से लगता इलाका खालसा में होने के बावजूद इनकी वहां बहुत आबादी है।
इस 360 की तरह ही मडाड और चौहानो की 360 थी। मडाडों के 360 गांव जो बोले जाते हैं उसका मतलब उनकी रियासत से था, मडाड राजपूतो की बसापत सभी 360 गांवो में नही थी।
इसी तरह उत्तरी दोआब में पुंडीरो की रियासत 1440 गांव की बोली जाती थी जो आज के सहारनपुर, हरिद्वार, मुजफ्फरनगर और शामली जैसे 4 जिलों में फैली हुई थी। इसमे पुंडीरो के गांवो के कई समूह हैं जो पहले जागीर रही होंगी।
लेकिन इसमे कोई एकरूपता नही होती थी। जैसे जाटू तंवरो के राज्य का क्षेत्रफल मडाडों या परमारो से ज्यादा नही था लेकिन वो अपने को 1440 बोलते थे। बाद में भाट जगाओ ने अज्ञानता के कारण अपने हिसाब से इन संख्याओं को परिभाषित करने का काम किया। जैसे किसी वंश की 360 बोली जाती है लेकिन वर्तमान में उस जगह सिर्फ 40-50 गांव में उस वंश की आबादी दिख रही है तो भाटो ने अपने मन से उस वंश की दूसरी जगह बसी खापो को जोड़ जाड़ के 360 गांव सिद्ध कर दिए। जैसे पश्चिम उत्तर प्रदेश में गहलोतो के कई जगा/भाट यहां पुराने जमाने से 360 गांव होने की बात जो जनश्रुतियों में लोकप्रिय थी, उसे सिद्ध करने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी खाप के गहलोतो के गांव के साथ नेपाल में गहलोत बताकर वहां के गांव तक की काल्पनिक संख्या जोड़ देते हैं। जबकि उन्हें नही पता कि हाथरस क्षेत्र में ही एक समय गहलोतो का बड़ा राज्य था जिस कारण 360 गांव होने की बात जनश्रुतियों में थी।
इसी तरह सर्विस क्लास जातियों के भी आंतरिक संगठन में 84 और 360 गांवो पर चौधरी होते थे। उदाहरण के लिए एक विशेष क्षेत्र में बढ़ई जाती के 360 गांव बोले जाते थे जिनपर उनका मुखिया होता था जिसे चौधरी कहते थे। इसका मतलब ये नही कि वो 360 गांव के मालिक होते थे। बल्कि 360 गांव में रहने वाले बढ़ई जाती के लोगो का मुखिया होता था। लेकिन 360 भी सांकेतिक होता था। गांव इससे कहीं ज्यादा या कम हो सकते थे।
राजपूतो में उत्तर भारत में निम्नलिखित चौरासी थीं----
(ये संपूर्ण लिस्ट नही है और ना ही परफेक्ट है। कई जगह पहले कुछ और मान्यता रही होगी और अब कुछ और। जैसे बुलंदशहर के बाछलो पर पहले 55 गांव की जागीर होती थी जो अंग्रेजो के समय खत्म हो गई और उस वक्त जिन 12 गांवो में बसापत थी उनमे ही उनकी आबादी रही आई इसलिए अब बारहा गांव की खाप बोली जाती है)
गाजियाबाद-हापुड़ में तोमरो की चौरासी।
हापुड़ के गढ़मुक्तेश्वर में ही चौरासी का आधा ब्यालसी भी थी तोमरो की।
बुलंदशहर के खुर्जा में भाल सोलंकीयो की चौरासी।
बुलंदशहर के ही जेवर में छोकरो की चौरासी।
बुलंदशहर के ही अनूपशहर और संभल के नरौली क्षेत्र में बडगूजरो(राघव) की चौरासी।
पुराने जमाने में गुड़गांव और मुजफ्फरनगर क्षेत्र में भी बडगूजरो(राघवो) की चौरासी बोली जाती थी। अब गुड़गांव में चौबीसी बोली जाती है जबकि मुजफ्फरनगर वाली के मुसलमान बन जाने की बात बोली जाती है लेकिन असल मे बालियान जाट जो बडगूजरो की देखा देखी अपने को अब रघुवंशी बोलते हैं उन्ही के लिए पुराने समय मे जनश्रुतियों में बडगूजरो की चौरासी होना बोला गया है।
बुढ़ाना क्षेत्र में कछवाहों की चौरासी। हालांकि पुराने जमाने में इनकी यहां 360 होने का जिक्र होता था। जिसका मतलब इनका कभी बड़ा राज्य रहा हो सकता है।
सहारनपुर के काठा क्षेत्र को पहले चौरासी बोला जाता था।
लोनी में चौहानो की चौरासी थी।
अलीगढ़ के चंडौस क्षेत्र में चौहानो की चौरासी।
अलीगढ़-हाथरस क्षेत्र में पुंडीरो की चौरासी है।
कासगंज के सोरों क्षेत्र मे सोलंकियों की चौरासी।
इसी क्षेत्र में गौरहार की चौरासी।
मथुरा में तरकर की चौरासी।
बदायूं के बिलसी क्षेत्र में जंघारा तोमरो की चौरासी।
मैनपुरी के किरावली में राठोड़ो की चौरासी।
आंवला में चौहानो की चौरासी है।
मिर्जापुर के कांतित में गहरवारों की चौरासी थी।
प्रयागराज के मेजा क्षेत्र में भी गहरवारों की चौरासी है।
कानपुर के शिवली में चंदेलों की चौरासी है।
एमपी के जबलपुर के पास बनाफ़रो की चौरासी है।
उन्नाव में बिसेन राजपूतो की चौरासी होती थी।
मैनपुरी के करहल क्षेत्र में बैस राजपूतो की चौरासी बोली जाती थी।
जौनपुर में चंदेलों की चौरासी होती थी।
गोखपुर के उनौला के पास पालिवार राजपूतो की चौरासी है।
बलिया के दोआबा में बिसेनो की चौरासी है।
गाजीपुर के गहमर क्षेत्र और उससे लगते बिहार में सिकरवारो की चौरासी।
सिकरवारों की चौरासी थी।
एमपी के मुरैना में सिकरवारों की चौरासी है।
भोपाल के पास चौहानो की चौरासी है।
रीवा के रामपुर में बघेलों की चौरासी।
सीधी में चौहानो और सेंगरो की चौरासी।
होशंगाबाद में धाकरे राजपूतो की चौरासी बताई जाती है।
सुल्तानपुर-जौनपुर क्षेत्र में राजकुमारों के क्षेत्र को चौरासी कोस में फैला बोलते हैं।
इसी तरह 360 की अगर बात करें तो हरियाणा और पंजाब में बड़े राज्य रहे हैं इसलिए वहां कई 360 मिलती हैं।
जैसे उत्तरी हरियाणा में चौहानो की 360। लेकिन वहां अब बसे हुए गांवो के आधार पर दो 84 बोलने का चलन ज्यादा है।
उससे नीचे मडाडों की 360
मडाडों के नीचे परमारो की 360
सिरसा में भट्टियों की भी 360 होती थी।
पंजाब में वराह और तावनी राजपूतो की भी 360 बोली जाती थी।
उनसे आगे घोडेवाहा के 360 गांव का राज बोला जाता था।
लुधियाना और जालंधर के आसपास मंज राजपूतो की 360 होती थी।
हाथरस आगरा क्षेत्र मे अब गहलोत की 84 है लेकिन पहले 360 बोली जाती थी जिससे संकेत मिलता है कि पहले यहां इनका बड़ा राज्य था।
मुरादाबाद के कठेरिया रामपुर में अपने 360 गांव बोलते हैं हालांकि कठेरियो का राज इससे कई गुना बड़े इलाके पर था, मुरादाबाद से लेकर शाहजहांपुर तक। इनके राज्य के लिए 1440 की सांकेतिक संख्या भी कम है।
कानपुर में जो चंदेलों की 84 है उसको पहले 360 बोलते थे।
गोंडा क्षेत्र में बिसेनो का 360 रहा है।
वाराणसी-गाजीपुर के कटेहर क्षेत्र के रघुवंशियो की खाप को 360 बोला जाता था।
बलिया जिले के प्रसिद्ध लखनेसर के सेंगरो के राज्य को 360 गांव का ही बोला जाता था।
इसके बाद अगर 1440 की बात करें तो पुंडीरो के अलावा भिवानी हिसार में जाटू तंवरो के 1440 गांव बोले जाते थे।
मुरैना क्षेत्र में भी तोमरो की खाप को 1440 बोला जाता है।
अवध का बैसवाड़ा भी 1440 गांव का माना जाता है।
उन्नाव का दिखितवाड़ा, राय बरेली के कान्हपुरिया, सुलतानपुर के बछगोती, सर्यूपार के कलहंस, सूर्यवंशी, श्रीनेत, उत्तरी अवध के चंद्रवंशी बाछल, हरदोई के सोमवंशी, आजमगढ़- अम्बेडकरनगर के पालिवारो के राज्य भी 360 या 1440 गांव का बोले जाते थे।
लेखक- पुष्पेन्द्र राणा
संदर्भ- विभिन्न colonial रिकार्ड्स।
नोट- इसमे सिर्फ मेरी जानकारी की और पढ़ने में जो आई सिर्फ उन्ही खापो का जिक्र किया है। इस तरह की और खापो के बारे में जानकारी हो तो बताए। धीरे धीरे उन्हें भी जोड़ दिया जाएगा। जागीर/खाप इससे अलग संख्या में भी होती है। 12, 24, 60, 87 आदि गांव की भी खाप होती हैं और इन्हें भी शुभ संख्या माना जाता है लेकिन 84 को सबसे शुभ माना जाता है क्योंकि इस संख्या का 7 और 12 दोनो से भाग होता है। ये भारतीय ज्योतिषशास्त्र का विषय है, में इसके डिटेल मे नही जाना चाहता। मेने 84 के बहाने से राजपूतो के सेटलेमेंट्स या उपनिवेशीकरण का पैटर्न समझाने की कोशिश की है क्योंकि में देखता था कि इस विषय मे लोगो को बहुत भ्रम हैं। (आज तक किसी academician ने भी इस विषय पर शोध नही किया और ना ही उन्हें ज्ञान) अगर फिर भी कोई डाउट हो तो पूछ सकते हैं। राजपूतो की बसापत सिर्फ इसी तरह होती थी ऐसा नही है लेकिन पुराने जमाने मे ये ही स्टैण्डर्ड प्रक्रिया थी।
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